Monday 26 August 2013

मैं,
नाम शायद
भूलता हूँ
पर समर्पण
एक सबका

था  नया अंदाज़ अपना
थी  नयी पहचान ये
झूम के आयी घड़ी वो 
याद कितनी दे गई

नाज़ है तुम पर सपूतों
लेखनी को आज अब
मंच ऐसा ये दिया जो
नित करे नए काज तब

कितने भी किरदार रहें हों
कितने भी युग बदल गयें हों
हर किरदार को आज मिलाया
हर युग को भी आज दिखाया

यही तो अपना है लिट्रेचर
यही तो करता है  लिट्रेचर 

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