मज़ा ही कुछ और है ,
अफवाहों के बाज़ारों को गर्म करने का ,
झूठी बातों को फैलाने का
मज़ा ही कुछ और है
समझ से परे हैं ,
वो बातें उपज कहाँ की होती थीं ,
बस . . . होतीं थीं ,
तो माहोलों को सजाने के लिए
महफिलों को ज़माने के लिए,
दोस्तों के संग खुशियाँ मनाने के लिए
आज भी याद से रोमांचित हो जाना ,
समझ जब से थी पायी ,बस खुराफात ही सूझती थी
चाहे वो स्कूल के दिन रहें हों ,चाहे मोहल्ले की शामें ,
टीचर जी से लफड़ा कराना हो या मोह्हबत की मेहरबानी ,
मज़ा ही कुछ और था ,झूठी बातों को फैलाने का . .
आज अब समझ आया है ,वो लड़कपन की समझ थी ,
मज़ा था उन ख्यालों में ,जीते थे उन बवालों में
उद्देश्य किसी को ठेस पहुँचाने का नहीं था
बस लड़कपन की मस्ती थी ,जो कभी कभी सवाल बन जाती थी
कितनी सारी बातें हैं कहने को ,समझने को ,सुनाने को
पर उस समय ये सब मात्र एक बहाना बन जाती थीं
डींगें मारने की ,धौंस जताने का सहारा बन जाती थीं
बातें तो आज भी वैसे ही रहीं हैं ,बस बदला तो ये वजूद है
मिटाने को कुछ बचा नहीं
याद रखने को बस ये सिलवटें हैं
जो यादों की फेहरिस्तों को लम्बी करती चली गईं हैं