Thursday 5 September 2013

मैं भूल न पाया दिन अपने
जब गुल्ली डंडा खेले थे
मास्टर की छड़ियों ने
भी तब  सीखें दीं अलबेले थे

दादी अम्मा के हाँथों की
वो सुबह कलेवे का खाना
उन ठंडी ठंडी रातों का
चौपालों में हंसकर जाना

वो क्लास लगाना टीचर से
प्रेयर में पक्का सो जाना
जब टिफ़िन की बारी आये तब
चलते लेक्चर में निपटाना

वो अंग्रेजी में जीरो को
हर बार नया सा ले आना
नंबर ज्यादा न आने पर
हर बार नया ही  हर्जाना

मुर्गा बनना ,डंडे खाना
अब हर दिन का ही किस्सा था
प्रेयर के जैसे वो भी तो
मेरे रूटीन का हिस्सा था

वो मैच में बोलिंग पे झगड़ा
फिर कंचे की हेरा फेरी
तब दंगल की नौबत आना
मेरे घर जाने से पहले
उस रोज़ शिकायत का जाना

प्रॉमिस हरदम पहले वाली
अब आइयिन्दा न जाउँगा
न गिल्ली डंडें  खेलूँगा
न कंचों को हाँथ लगाऊंगा

बातें करना फ़िल्मों वाली
घर आ के खाना फिर गाली
नखरे अपने हीरो जैसे
चाहे ही रहें हों  ब-वाली

किस्से हर रोज़ पुराने थे
अपने बचपन अनजाने थे

बस यादों का ही फेर बचा
अब ये आतीं मनमानी हैं
उस जीवन के घटना क्रम
की अब वो ही बची कहानी हैं
अब वो  ही बची निशानी है





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