Sunday 6 October 2013

मैं कवी हूँ ,पर मेरा भी तो दिल है
पीड़ा हुई तो कविताओं में निकल जाती है

आंशू बने तो भावनाओं में छलक जाते हैं
पर पीड़ा तो आखिर पीड़ा है

दर्द तो इस दिल में भी होता ही है
आखिर क्यूँ ये दिल निपट अकेले में
अक्सर ही रोता  है

ये भी तो दिल ही है ,इसमें भी अरमान कुछ हैं
कुछ बातें कह तो सकता नहीं ,पर निकल पड़ती है जान बहुत

इस दुनिया में मैं ही झूठा हूँ ,लगते  हर मर्ज पुराने हैं
दुनिया वालों कुछ तुम भी तो जानो
क्यूँ आज बने अनजाने हैं

चढती कलियों के दीवाने होते हैं  सब ,हम बुझती ज्वाला के भी दीवाने हैं
ये आज के माली बन बैठे ,मुरझाती उनकी क्यारी है

सब सहता आया आज तलक ,अब भी सहने की ही बारी है
मैं दुनिया को क्या समझाऊँ ,जब न सुनने की बीमारी है
जब  झलक रही लाचारी है ,ये दुनिया बड़ी बीमारी है 

No comments:

Post a Comment